Monday, 7 January 2019

Tum aur yeh Kudrat

हर रोज़ देखता हूं तुझे और इस कुदरत को
पर एक बात  समझ नहीं आई है।
कौन किसका प्रतिबिंब है और कौन किसकी परछाई है।।

डूबते हुए सूरज की लाली है तेरे गालों पर
 या खिलाती हुई कलियों ने तेरे होठों की रंगत चुराई है।।
इन काली घटायों ने सीखी है अदा तेरी जुल्फों से
या इन वादियों को तुमने हसने की अदा सिखाई है।।

हर रोज़ देखता हूं तुझे और इस कुदरत को
पर एक बात समझ नहीं आई है।
कौन किसका प्रतिबिंब है और कौन किसकी परछाई है।।

तेरे सांसों की गर्माहट चांद की चांदनी से है।
या इन हवाओं ने तेरे बदन की खुशबू चुराई  है ।
शाम का शबाब है तेरे हुस्न से  ।
या इस मौसम ने चंचलता तेरी आंखों पाई है।।

हर रोज़ देखता हूं तुझे और इस कुदरत को
पर एक बात समझ नहीं आई है।
कौन किसका प्रतिबिंब है और कौन किसकी परछाई है।।





तेरे ख्वाबों में खोया रहूं
बस यही सोचकर आंखे बंद करता हूं।।
अकेला तो कभी डरा नहीं मौत से भी
तुझसे मिलने के बाद जाने किस बात से डरता हूं।।
बस उस घड़ी का इंतजार है जब मिलूंगा तुझसे
कैसा होगा वह मंज़र यही सोच सोच कर आहें भरता हूं।।

क्यूं खफा खफा   सा लगता है यार मेरा ,
क्यूं भुझा भुझा सा लगता है फुलझड़ियों सा चेहरा  ।।
तू कहे तो तोड़ लाऊं हंसी कहीं से तेरे लिए ,
यूं अच्छा नहीं लगता मुखेगुल्जार पे झुर्रियों का घेरा ।।


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